कविता(poetry)

रोज आते रहे रोज जाते रहे 
खुद से ही हम दूरी बनाते रहे 
क्या कमी थी हमारे रिश्तों के बीच 
तुम हमें हम तुम्हें युं भुलाते रहे 

कांटे गड़ जाए पांव में क्या करें 
दूस्करो के झील में जीये या मरे 
फिर क्यूं ये भुवनगम तन में बसा 
हम हंसाते रहे तुम रूलाते रहे 

बातों में इतनी भी क्या जलन आ गई 
आँख से आंसू बरसे घटा छा गई 
अब भी किस बात पर युं अकड़ना है 
तुम छुपाते रहे सदा हम बताते रहे । 

पंखुड़ी खुल गई सीपी भी हट गया 
शीत कि बूंद अधरों से भी छट गया 
पर घनाघोर मौसम छाई लग रही 
मैं तो भीगता रहा तुम भीगाते रहे 

कुछ समझ में आता नहीं तुम हो क्या 
कोई शम्मा हो याँ फिर हो बुझता दीया 
हाथ पकड़ो कहो तो गला ही पकड़े 
हम जलाते रहे तुम बुझाते रहे l
रोज आते रहे रोज जाते रहे ,,,,,,,,,,,,॥

-अमित कुमार अनभिज्ञ 
 बरबसपुर कबीरधाम 


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छत्तीसगढ़ महतारी